वो मुझ से कहती थी
मेरे शाइ'र
ग़ज़ल सुनाओ
जो अन-सुनी हो
जो अन-कही हो
कि जिस के एहसास
अन-छुए हों
हों शे'र ऐसे
कि पहले मिसरे को
सुन के
मन में
खिले तजस्सुस
का फूल ऐसा
मिसाल जिस की
अदब में सारे
कहीं भी ना हो
मैं उस से कहता था
मेरी जानाँ
ग़ज़ल तो कोई ये कह चुका है
ये मो'जिज़ा तो
ख़ुदा ने मेरे
दुआ से
पहले ही कर दिया है
तमाम आलम की
सब से प्यारी
जो अन-कही सी
जो अन-सुनी सी
जो अन-छुई सी
हसीं ग़ज़ल है
वो मेरे पहलू में
जल्वा-गर है
नज़्म
तख़्लीक़
सिराज फ़ैसल ख़ान