रात ज़ुल्फ़ों की दिल-आवेज़ शमीम
सोहबत-ए-शौक़ को गरमाती रही
शाहिद-ए-शोख़ का पैकर था ख़याल
गर्म आज़ा का गुदाज़
लज़्ज़त-ए-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़
छिड़ गए साज़ के तार
यूँ मचलती थीं उमंगें मेरी
जैसे गर्दूं पे सितारे चमकें
ख़ालिक़-ए-ज़ीस्त को इक शर्म सी महसूस हुई
इक नए कर्ब-ए-तमन्ना का सहारा ले कर
ख़्वाब-ए-राहत से उठा
और आमादा-ए-पैकार हुआ
दश्त-ए-पैकार में बढ़ता ही गया
बढ़ के इक चश्मा-ए-सीमीं ने क़दम चूम लिए
नूर-ए-सय्याल से मानूस फ़ज़ा
दिल-ए-बे-ताब को रास आने लगी
जिस्म आसूदा हुआ
अर्श पर एक सितारा टूटा
इक नई ज़ीस्त की तख़्लीक़ हुई
नज़्म
तख़्लीक़
कृष्ण मोहन