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तजरीद | शाही शायरी
tajrid

नज़्म

तजरीद

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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ज़िंदगी मैं तिरे दरवाज़े पर
इक भिकारी की तरह आया था

अपने दामन को बना कर कश्कोल
तेरी हर राह पे फैलाया था

एक मरहूम किरन की ख़ातिर
मुझ को थोड़ी सी ज़िया भी न मिली

दम-ब-दम डूबते सय्यारे को
अपने मरकज़ से सदा भी न मिली

दफ़अतन एक धमाके के साथ
कच्चे धागों के सिरे छूट गए

उँगलियाँ छिल गईं अरमानों की
यक-ब-यक तार-ए-नफ़स टूट गए

और फिर एक घना सन्नाटा
और फिर रस्म-ए-कोहन के गेसू

कुछ दिलासे की ज़बानी बातें
कुछ दिखावे के पुराने आँसू

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कोहर में डूब गई थीं शमएँ

वक़्त नाराज़ था क़िस्मत की तरह
रात के रुख़ पे थे ज़ख़्मों के निशान

मेरी मजरूह हमीयत की तरह
इक ख़तरनाक कगारे के क़रीब

तुझ से लड़ने का इरादा ले कर
मैं ने मोहरों को सिखाई शोरिश

मैं ने मौजों के बिगाड़े तेवर
तू मगर आई तो इक लम्हे में

न वो तेवर थे न वो आहें थीं
तेरे आरिज़ पे मिरे आँसू थे

मेरी गर्दन में तिरी बाहें थीं