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तारीकियों का हिसाब | शाही शायरी
tarikiyon ka hisab

नज़्म

तारीकियों का हिसाब

सहर अंसारी

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नीम-ख़्वाबीदा बोझल सुबुक-सर हुआ
शब की आग़ोश में दफ़अ'तन जाग उठी

कसमसाती हुई सर उठा के चली
शब की आग़ोश से सर्द बोझल हवा

लड़खड़ा के चली बे-ख़तर बे-हज़र
चूर नश्शे में यक-चश्म इफ़रीत-ए-शब

आँख की सुर्ख़ गोलाई रौशन किए
है हवा के तआ'क़ुब में हर मोड़ पर

कौन रोके उसे कौन टोके उसे
हैं तज़ादों के आसेब इस शहर में

नफ़अ' ओ हिर्स ओ हवस की जबीनों को भी
चाँद के रूप में ढालने के लिए

दस्त-ए-शब ने दो-रूया इमारात पर
रौशनी की लकीरों से लिक्खे हैं नाम

शहर की शाह-राहों पे हैं रक़्स में
नीलगूँ सुर्ख़ पीले हरे दाएरे

गाह जलते हुए गाह बुझते हुए
हर अँधेरे पे है रौशनी का नक़ाब

इक हवा है कि जिस की निगाहों में है
शहर के दिल की तारीकियों का हिसाब

शहर के शब-ज़दा पैरहन में कहीं
कहकशाँ की तरह रौशनी तो नहीं

पैरहन में स्याही के हर दाग़ पर
रौशनी की लकीरों के पैवंद में

और इस शहर के दिल की क़िंदील पर
रौशनी की लकीरों के दर बंद हैं