सोचता हूँ
वक़्त की गर्दन पकड़ कर
रेशमी स्कार्फ़ का फंदा लगा कर
खींच लूँ
और इतनी ज़ोर से चीख़ूँ
ज़मीं से
आसमाँ तक
सिर्फ़ मेरी चीख़ ही का शोर गूँजे
वक़्त की मरती हुई आवाज़ कोई सुन न पाए
सोचता हूँ
वुसअत-ए-आफ़ाक़ में पर्वाज़ कर के
रात की आँखों में तारीकी का पर्दा डाल कर मैं
चाँद तारों को चुरा लाऊँ ज़मीं पर
और थोड़ी देर
बच्चों की तरह ख़ुश हो के खेलूँ
खेलने से भी जब अपना दिल न बहले
एक पत्थर पर पटख़ कर
हर खिलौने को मैं चकना-चूर कर दूँ
सोचता हूँ
आसमाँ से छीन कर
जलते हुए सूरज की थाली
एक कश्ती की तरह
गहरे समुंदर में चलाऊँ
और उस पर सारी दुनिया को बिठा कर
ग़र्क़ कर दूँ
सोचता हूँ
सोचते ही सोचते
मैं ख़ुद ही इक दिन
सोच के आतिश-कदा में जल न जाऊँ
नज़्म
सूरज का आतिश-कदा
कैफ़ अहमद सिद्दीकी