सुनो
जिन की हँसी से इस ज़मीं पर फूल खिलते हों
जिन्हें नग़्मे पे इतनी दस्तरस हो
कि पंछी इन की लै पर चहचहाते हों
उन्हें तो इस तरह चुप-चाप हो जाना नहीं सजता
सुनो
सारी ज़मीं गम्भीर चुप ओढ़े हुए साकित खड़ी है
तुम उतनी ही करो इक बार हँस दो
ज़मीं की मुंजमिद साँसों में
फिर से ज़िंदगी चलने लगेगी
पहले दिन से लोहे के जूते पहनाओ
यही हुआ और होता आया
सब ने देखा
सुर्ख़ सजीले चेहरों वाली
और गदराए जिस्मों वाली दोशीज़ाएँ
आँगन की दीवार पकड़ कर चल पाती थीं
सोच रही हूँ
सदियाँ कैसे इतना पीछे लौट आई हैं
चीन की सरहद कैसे मेरे घर आँगन तक आ पहुँची है
लोहे के जूतों में जकड़े मेरे पाँव
आँगन की दहलीज़ अलांग के
अपनी दुनिया तक जाने से इंकारी हैं
नज़्म
सुनो
मंसूरा अहमद