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सुकूत | शाही शायरी
sukut

नज़्म

सुकूत

जौहर निज़ामी

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सो रही थीं नद्दियाँ और झुक गए थे बर्ग-ओ-बार
बुझ गया था ख़ाक की नब्ज़ों में हस्ती का शरार

चाँदनी मद्धम सी थी दरिया की लहरें थीं ख़मोश
बे-ख़ुदी की बज़्म में टूटे पड़े थे साज़-ए-होश

भीनी भीनी बू-ए-गुल रक़्स-ए-हवा कुछ भी न था
सेहन-ए-गुलशन में उदासी के सिवा कुछ भी न था

इक हिजाब-ए-तीरगी था दीदा-ए-बेदार पर
कुछ धुआँ सा छा रहा था हुस्न के अनवार पर

इस धुएँ में रूह की ताबिंदगी खोते हुए
मैं ने देखा नौ-ए-इंसानी को गुम होते हुए