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शॉफ़र | शाही शायरी
shofer

नज़्म

शॉफ़र

शाद आरफ़ी

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खट... खट... कौन? सबीहा! कैसे? यूँही, कोई काम नहीं
पिछली रात.. भयानक गैरज.. क्या कुछ हो अंजाम.. नहीं

मेरा ज़िम्मा.. मैं भुगतूँगी.. तुम पर कुछ इल्ज़ाम... नहीं
हम हैं उस अख़्लाक़ के पैरव, हम हैं उस तहज़ीब के लोग

जिस में इफ़्फ़त इक ''मफ़रूज़ा'' इस्मत जिस में ''ज़हनी रोग''
जज़्बों पर पहरे बिठलाना क्या ''सौदा-ए-ख़ाम'' नहीं?

दो बच्चों के बाप.. तो क्या है? ''दिल का हो इंसान जवान''
तुम भी ऐसे बन जाओ ना जैसे ''मँझले भाई जान...''

साली और सलज पर लट्टू, बीवी से हम्माम नहीं
उन से.... वो.... तहज़ीब से ऊँची, छोटे भाई से वक़्ती चाह

शौहर आए न आए लेकिन देवर की ''तकती हैं राह''
ख़्वाहिश की तकमील भी जारी, ''शादी भी नाकाम नहीं''

नौकर और नमक और मज़हब... इन तावीलों से बाज़ आओ
मर्दों की ऐसी नेकी पर आ जाता है मुझ को ताव

औरत के होंटों पर ठप्पा अब मक़्बूल-ए-आम नहीं
हफ़्ता भर में इक दिन ''ऐसी लग़्ज़िश'' कोई ऐब नहीं

ज़ाहिर है पापा मम्मी को हासिल ''इल्म-ए-ग़ैब'' नहीं
काली रातों की बातों से वाक़िफ़ ''सुब्ह-ओ-शाम'' नहीं

जाती हूँ, घबराते क्यूँ हो? क्या अँधियारी घोर नहीं?
दो दिल राज़ी के बारे में क़ाज़ी का कुछ ज़ोर नहीं

लो... ये दस का नोट... तुम्हारी ''उजरत'' है इनआम नहीं