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शिरकत-ए-महफ़िल | शाही शायरी
shirkat-e-mahfil

नज़्म

शिरकत-ए-महफ़िल

नज़्म तबा-तबाई

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तू हमेशा रहता है चीं-बर-जबीं अफ़्सुर्दा दिल
फिर किसी की बज़्म-ए-इशरत में न जा बहर-ए-ख़ुदा

ख़ुद ही अपनी जान से बे-ज़ार तू इंसाफ़ कर
तुझ से अहल-ए-बज़्म फिर किस तरह ख़ुश होंगे भला

चाहिए इस तरह जाना महफ़िल-ए-अहबाब में
बाग़ में जिस तरह ख़ुश ख़ुश आती है बाद-ए-सबा

ख़ैर-मक़्दम का इशारा झूम कर करती है शाख़
और चटक कर देती हैं कलियाँ सदा-ए-मर्हबा

जिस शजर के पास से गुज़रे लगा वो झूमने
पहुँचे जिस ग़ुंचे तक अफ़्सुर्दा था वो हँसने लगा

दिल पे जो गुज़रे वो गुज़रे क्यूँ किसी को हो ख़बर
सब से बढ़ कर है ख़ुदा तू हाल दिल का जानता

शादी-ओ-ग़म जब कि दोनों हैं जहाँ में बे-सबात
वक़्त अपना काट दे हँस बोल कर बहर-ए-ख़ुदा