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शब-ए-ख़िज़ाँ | शाही शायरी
shab-e-KHizan

नज़्म

शब-ए-ख़िज़ाँ

समीना राजा

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तुझे ए'तिबार-ए-सहर भी है
तुझे इंतिज़ार-ए-बहार भी

मगर ऐ सदा-ए-उमीद-ए-दिल
मिरी ज़िंदगी तो क़लील है

ये शब-ए-ख़िज़ाँ
है मिरे गुमाँ से अजीब-तर

कोई आस-पास नहीं यहाँ
कोई शक्ल हो जो दिल-आफ़रीं

कोई नाम हो जो मता-ए-जाँ
कोई चाँद ज़ीना-ए-अब्र से

उतर आए और मुझे थाम ले
कोई ख़्वाब-रू बड़ी गहरी नींद से

चौंक कर मिरा नाम ले
सर-ए-शाम कोई सितारा जो

कोई राह-रौ किसी राह में
जिसे हो फ़क़त यही आरज़ू

मिरा हाथ थाम के रौशनी के
किसी मदार में ले चले

मिरी नींद चूम के
ख़्वाब के किसी मर्ग़-ज़ार में ले चले

मगर ऐ बहा-ए-उमीद-ए-दिल
तिरी ज़िंदगी भी क़लील है

ये ख़िज़ाँ की रात
तवील है