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समुंदर और मैं | शाही शायरी
samundar aur main

नज़्म

समुंदर और मैं

मुनीबुर्रहमान

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इक दिन मुझ से समुंदर ने कहा
कौन उठाएगा मिरा बार-ए-गिराँ

अपनी आशुफ़्ता-सरी की ख़ातिर
मैं ने क़ुर्बान किया ऐश-ए-जहाँ

रात को चैन न दिन को आराम
उम्र नाशाद कटी गर्म-ए-फ़ुग़ाँ

मुज़्महिल हो गए आज़ा मेरे
दस्त ओ पा में न रही ताब ओ तवाँ

मौज को खेल से फ़ुर्सत ही नहीं
इस सुबुक सर को मिरी फ़िक्र कहाँ

कुछ तवक़्क़ो थी मुझे साहिल से
वो मगर निकला फ़क़त रेग-ए-रवाँ

बादल आते हैं चले जाते हैं
एक पल में यहाँ इक पल में वहाँ

इस ज़माने में हो किस से उम्मीद
ग़म से बेगाना समझ सकता है

दर्द का राज़ मोहब्बत की ज़बाँ
अपने सीने में बिठा लो मुझ को

ता कि मैं पाऊँ मशक़्क़त से अमाँ
सुन के बेचारे की रूदाद-ए-अलम

कर लिया मैं ने उसे दिल में निहाँ
आओ देखो मिरे अश्कों में उसे

इक समुंदर है कराँ-ता-ब-कराँ