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सग-ए-हम-सफ़र और मैं | शाही शायरी
sag-e-ham-safar aur main

नज़्म

सग-ए-हम-सफ़र और मैं

रईस फ़रोग़

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सग-ए-हम-सफ़र और मैं
वहाँ आ गए हैं

जहाँ ख़त्म है काएनात
यहाँ से नशेब-ए-ज़मान-ओ-मकाँ का अगर जाएज़ा लें

तो लगता है जैसे धुँदलकों के उस पार
जो कुछ भी है ठीक है

हस्ब-ए-मामूल है
मिरा नाम शेनान्डोरा है

मैं कितनी सदियों से उस बहर-ए-ज़ख़्ख़ार में ख़ेमा-ज़न था
जो मव्वाज सम्त-ए-दिगर में रहा

एक दिन
दफ़-ए-आसेब ओ रफ़-ए-बला के लिए

कुछ पुर-असरार फ़िक़्रों की गर्दान करता हुआ
जादा-ए-ख़ौफ़ पर गामज़न था

मैं अपने शबिस्ताँ की जानिब
कि इक लर्ज़िश-ए-ना-गहाँ से गुज़रना पड़ा

तो अंधे ज़मानों की सहरा-नवर्दी के आख़िर में
वो एक तारीक लम्हा था जब

सग-ए-हम-सफ़र और मैं
माँदा ओ गुरसना

यहाँ इस इलाक़े में वारिद हुए
और अंधेरे में कुछ फ़ासले पर तिरी रौशनी देख कर

रक़्स करने लगे
सग-ए-हम-सफ़र और मैं

सग-ए-हम-सफ़र और मैं