अपनी पिछली साल-गिरह पर मैं ये सोच रहा था
कितने दिए जलाऊँ मैं?
कितने दिए बुझाऊँ मैं?
मेरे अंदर देवओं का ऐसा कब कोई हंगामा था?
मैं तो सर से पाँव तलक ख़ुद एक दिए का साया था
उम्र की गिनती के वो दिए सब
झूटे थे
बे-मअ'नी थे
एक दिया ही सच्चा था
और वो मेरी रूह के अंदर जलता था
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नज़्म
सच्चा दिया
अकबर हैदराबादी