बे-दाग़ वुसअ'तों की आहू-ए-बेबाक
तेरे एक ही मुश्क-बेज़ झोंके ने
यादों के दरीचे खोल दिए हैं
झुलसती दोपहरों में
घने पीपल की छाँव में
झूला झूलती हम-जोलियाँ
ख़ुश-गुलू चाढ़े की आवाज़ में
रेग-ज़ारों के गीत
कुन रस हुए जाते हैं
बरसात की आबनूसी रात का मंज़र
खुले आसमान तले बान की ठंडी चारपाई पर
चादर तान कर
धुले तारों की झिलमिलाहट
दीद-रस हुई जाती है
सावन रुत में गीली सोंधी मटकी महकार
चढ़ी नहरों की सलोनी सावनी थी मुश्क-बार
सुबहान तेरी क़ुदरत की
सदाएँ भी अजब थीं
डाल डाल को कई कोयल की
अदाएँ भी ग़ज़ब थीं
मैं चश्म-ए-तसव्वुर से
उन चुँधिया देने वाले रौशनियों से
नज़रें बचा कर
इस बज़्म-ए-नशात में झाँक लेती हूँ
कि
हर शय अपने असल को ढूँढती है

नज़्म
सबा-ए-सहरा
शमीम अल्वी