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साहिलों से कहो, मैं नहीं आऊँगा | शाही शायरी
sahilon se kaho, main nahin aaunga

नज़्म

साहिलों से कहो, मैं नहीं आऊँगा

कुमार पाशी

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साहिलों से कहो, मैं नहीं आऊँगा
अब किसी शहर की रात मेरे लिए जगमगाए नहीं

धूप बूढ़े मकानों की ऊँची छतों पर मिरा नाम ले कर बुलाए नहीं
मैं नहीं आऊँगा

याद आता है, इक दिन किसी से कहा था
तुझे पहन कर दूर के शहर की अजनबी धरतियों में उतर जाऊँगा

मैं अक़ीदा हूँ: मर जाऊँगा
याद आता है, इक दिन किसी ने कहा था

में तेरे लिए, तेरे एहसास की वादियों की घनी छाँव में पुर-सुकूँ
नींद सो जाऊँगी

बे-सदा लफ़्ज़ हूँ, तेरी आँखों में खो जाऊँगी
याद आता है, इक दिन मिरे रू-ब-रू: एक पुर-शोर और बे-कराँ बहर था

याद आता है, इक दिन मिरे रू-ब-रू: में कोई जागता जगमगाता हुआ
डूबता शहर था

एक आवाज़ थी: दूरियों से बुलाती हुई
एक आवाज़ थी, दूर के इक अकेले पहाड़ी नगर के अनोखे से मंज़र

दिखाती हुई
मुझ से छू कर कहीं दूर जाती हुई

वक़्त मुझ से परे
वक़्त तुझ से परे

मैं अक़ीदा हूँ
तू बे-सदा लफ़्ज़ है

अपने अपने बदन के अलाव में जल जाएँगे
दूर के

जगमगाते हुए
मुंतज़िर साहिलों से कहो

हम नहीं आएँगे
हम नहीं आएँगे