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रिवायत न टूटे | शाही शायरी
riwayat na TuTe

नज़्म

रिवायत न टूटे

किश्वर नाहीद

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हम रिवायात की कोहना सदियों के पर्बत तले
वो घने सब्ज़ जंगल हैं जो

बे-पनाह शाख़-दर-शाख़ ताबिंदगी
ताज़गी के तमव्वुज से सँवला के

ख़ुद ही झुलस जाएँ
ऐसे जलें ऐसे जलें

कि फ़क़त दूर तक कोएला कोएला ही दिखाई दे
और ताज़गी की नुमू

ख़ाक से भी गवाही न दे
वो मुक़द्दर के अच्छे

कि जिन को जलापे की मुद्दत गुज़रने पे
उन कोएलों की जगह हीरे मोती मिले

वो मुक़द्दर के अच्छे
कि जिन की दुआएँ ज़मीं की तहों में वहीं

तो कहीं सोना चाँदी बनें
वो मुक़द्दर के अच्छे

कि जिन के बदन खोलते ख़ूँ के चश्मे थे
अब भी हैं

पारे की कानों की सूरत कहीं
तो कहीं ऐसे भी सख़्त जानों के हैं सिलसिले जा-ब-जा

जिन से फ़ौलाद का नाम पाइंदा है
वो जलन जो कभी ताज़गी के तमव्वुज से पैदा हुई

है मुक़द्दर की तहरीर ऐसी कि जिस की जलन इब्तिदा
इंतिहा भी जलन

जलते रहने का ये सानेहा भी जलन
अंजुमन अंजुमन

चौदहवीं-रात के चाँद ने भी कहा
भीगी बरसात के रा'द ने भी कहा

तुम वही हो कि जिन को चटख़ने की मोहलत भी मिलती नहीं
अब रिवायत यही है

निभाओ हँसो
मुस्कुराओ जलो

हर इक ज़र्द चेहरा गुलाबी करो
हर इक आँख को अर्ग़वानी करो

मगर याद रक्खो
रिवायत न टूटे

तमव्वुज की हर ताज़गी लाख झुलसे
रिवायत न टूटे