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रौशनी कम है | शाही शायरी
raushni kam hai

नज़्म

रौशनी कम है

अमजद नजमी

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रौशनी कम है न कर उस की शिकायत हमदम
रौशनी कम ही रहे तो अच्छा

शादमानी-ओ-ख़ुशी के हमराह
इक न इक ग़म भी रहे तो अच्छा

दश्त-ओ-सहरा हो कि बाग़-ए-दबिस्ताँ
सत्ह-ए-दरिया हो कि चटयल मैदान

रात हर चीज़ पे है साया-निशाँ
रौशनी कम है अंधेरा ही ज़ियादा है यहाँ

शाह-राहों के नज़ारों पे न जा
क़ुमक़ुमों की नज़र-अफ़रोज़ क़तारों पे न जा

क्यूँकि इक चश्म-ए-बसीरत के लिए
जो भी है पेश-ए-नज़र

चश्मक-ए-बर्क़ है या रक़्स-ए-शरर
आ ज़रा मोड़ इधर को भी निगाहें अपनी

तीरा-ओ-तार है कितनी ये गली
टिमटिमाती है जहाँ खम्बे पर

एक मैली सी शिकस्ता चिम्नी
जिस तरह नज़्अ' में कोई बीमार

कब तलक रौशनी फैलाएगी ये
सुब्ह से पहले ही बुझ जाएगी ये

और फिर एक घटा-टोप अंधेरा होगा
इस अँधेरे ही में बस उस का सवेरा होगा

आ कि हम अब दिल-ए-इंसाँ भी टटोलें चल कर
बंद हैं ये जो दरीचे उन्हें खोलें चल कर

एक या दो के सिवा सब हैं सियाही से भरे
जैसे पत्ते शजर-ए-ख़ुश्क में दो-चार हरे

तीरा-ओ-तार है किस दर्जा ज़मीर-ए-इंसाँ
रौशनी इस में कहाँ

रौशनी कम है अंधेरा ही ज़ियादा है यहाँ