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राह-रौ | शाही शायरी
rah-rau

नज़्म

राह-रौ

ज़िया जालंधरी

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सुबुक-पा हवा की तरह मैं गुज़रता रहा
सुबुक-पा हवा की कहीं कोई मंज़िल नहीं

हवा बे-कराँ वक़्त की मौज अज़ल से तरसती रही
कहीं पल को सुस्ता सके सो सके

मगर दूर हद्द-ए-नज़र इक धुँदलका था अब भी धुँदलका है साहिल नहीं
मुझे ज़िंदगी इक ख़लिश बन के डसती रही

कभी ऐसी मंज़िल न आई जहाँ कोई ताज़ा नफ़स हो सके
हर इक धुँदली मंज़िल से पहले नया रास्ता ही उभरता रहा

कभी जलते फूलों की नौ-ख़ेज़ ख़ुशबुएँ दिल में दहकती रहीं
कभी ख़ुश्क झुलसी हुई टहनियाँ अब्र-पारों को हसरत

से तकती रहीं
वो कुछ मुझ से कहने को थीं और झिझकती रहीं

कभी सुख के साए कभी दुख के दरिया मिरा दिल मचलता रहा
कहीं फैले मैदाँ कहीं सख़्त ऊँची चटानों के

उलझे हुए सिलसिले
मगर मेरी मंज़िल यहाँ भी नहीं थी वहाँ भी नहीं

मैं चलने पे मजबूर चलता रहा
मैं हर बार कुछ भूल आया हूँ पीछे कहीं

यूँही जैसे ख़ुद रह गया हूँ कसी फूल के पास
चलते हुए