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क़िस्सा-ए-चहार-ख़्वाब | शाही शायरी
qissa-e-chahaar-KHwab

नज़्म

क़िस्सा-ए-चहार-ख़्वाब

क़मर जमील

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अव्वल
हल्क़ा-ए-याराँ में कनआँ रात के पिछले पहर

बस्तियों से दूर नहरों के किनारे ख़ेमा-ज़न
वो दरख़्तों की हवाओं में सितारे ख़ेमा-ज़न

बस्तियों से दूर सहरा के नज़ारे ख़ेमा-ज़न
हल्क़ा-ए-याराँ में कितने नाज़नीं नाज़ुक कमर

दोम
रक़्स के हंगाम कितने बाज़ुओं का पेच-ओ-ख़म

देखने वालों की नज़रों में उतर आने को है
ये बदन का लोच जैसे रूह बल खाने को है

ये नज़र के सामने कितने ही आलम ख़्वाब से
रक़्स के हंगाम उभर आते हैं कितने शोख़ रंग

और कितने तेज़ हो जाते हैं नज़रों के ख़दंग
ये ख़यालों के गुलिस्ताँ ये निगाहों के क़फ़स

रक़्स के ये दाएरे शोला-ब-दामाँ हर नफ़स
सोयम

रस्म अदा होने न पाई थी कि ख़ेमों के क़रीब
शह-नशीं की सम्त दौड़े इस तरह वहशी नक़ीब

कितने अरमाँ कितने ग़म अश्कों में ढल कर रह गए
ऐन जश्न-ए-रस्म के हंगाम कनआँ का गुरेज़

कितने मंज़र आरिज़-ओ-लब के पिघल कर रह गए
कितने लब हसरत-चाशीदा कितनी आँखें अश्क-रेज़

जैसे साग़र आएँ हाथों में मगर टूटे हुए
छेड़ियो मत ज़िंदगी के बाल-ओ-पर टूटे हुए

तार हैं इस साज़ के ऐ नग़्मा-गर टूटे हुए
चहारुम

ये क़बीलों के शुयूख़-ए-पुख़्ता-उम्र ओ सख़्त-कोश
वादी-ए-दजला के शहरी कुर्द के ख़ाना-ब-दोश

लड़ रहे हैं अपनी अपनी कज-कुलाही के लिए
कौन दारू बन के आए कम-निगाही के लिए

गर्मी-ए-गुफ़्तार से मुमकिन नहीं दिल का रफ़ू
गुफ़्तुगू से और बढ़ जाता है जोश-ए-गुफ़्तुगू