काश इक शब कोई चाँद ऐसा उगे
आदतन तू मुझे यूँ तो जिस में दिखे
हाँ अगर अक्स हो वो तिरा आख़री
दर्द का हो ये मंज़र मिरा आख़री
उस सहर में खुले आँख मेरी की जब
यूँ लगे जैसे तू है नहीं था नहीं
वो जो लम्हे गुज़र कर गया था कभी
यूँ लगे वो कभी जैसे गुज़रा नहीं
पर ख़यालात तो ''फिर ख़यालात हैं
कुछ नहीं दिल से उम्दा ये जज़्बात हैं
फिर ये मुमकिन कहाँ गर कोई हो मिला
साथ साँसें भरी साथ रोया हँसा
वो जो हिस्सा हो इक ज़िंदगी का मिरी
हो सबब ग़म का या हो ख़ुशी का मिरी
जो हुआ है वो कैसे हुआ ही नहीं
कैसे सोचूँ वो दिल में रहा ही नहीं
वो तो था अब भी है और रहेगा सदा
वो गया था ही कब जो कि आए भला
अपने माज़ी में झाँकूँ न पाऊँ तुझे
अब ये मुमकिन कहाँ भूल जाऊँ तुझे
एक पल था अभी तू यहीं था यहीं
और पल ये है इक तू कहीं भी नहीं
गर नहीं तू तो यादें तिरी क्यूँ रहें
ज़ेहन-ओ-दिल पर ये बातें तिरी क्यूँ रहें
किया कभी ज़िंदगी ऐसा होगा नहीं
वो जो अब है नहीं मान लूँ था नहीं
ऐसा होगा कभी हो तसल्ली कभी
यही होना था लिक्खा हुआ भी यही
जिस तरह एक पल में जुदा वो हुआ
मैं भी कह दूँ कि अब जो हुआ सो हुआ
पर यही इक हुनर मुझ को आया नहीं
याद कर के ये दिल भूल पाया नहीं
लख़्त-ए-दिल की तरह मुझ में रहता है वो
क़तरा-ए-ख़ून सा मुझ में बहता है वो
वो कोई शय कहाँ मैं जसे छोड़ दूँ
राब्ता वो कहाँ मैं जिसे तोड़ दूँ
मश्क़ है रंग है लुत्फ़ है ख़ास है
याद है याद तो एक एहसास है
याद मैं अब कहाँ छोड़ आऊँ तुझे
अब ये मुमकिन कहाँ भूल जाऊँ तुझे
नज़्म
परछाइयाँ
नितिन नायाब