नीलगूँ अब्र छटा
सुरमई शाम के सूरज की तिलाई किरनें
मरमरीं बर्फ़ के बिल्लोर बदन पर बरसें
झूमते पेड़ों की बाहोँ में महकते झोंके
पेंग सी ले के परी-चेहरा मुंडेरों की जबीं पर उमडे
धुँद की मल्गजी आग़ोश में ख़्वाबीदा मकानों की छतों ने अपनी
छातियाँ खोल के अंगड़ाइयाँ लीं
ज़लज़ला था कि मिरा वहम था कुछ था जिस से
थरथरा उट्ठे मिरे हाथ और इन के नीचे
झनझना उट्ठी थी यूँ बॉलकनी की रेलिंग
जैसे बज उठें किसी साज़ के तार
और मैं लौट के कमरे में चला आया था
अहमरीं शाल में लिपटी हुई इक लड़की ने
चाय की प्याली मिरे हाथ में देते हुए हौले से कहा था अब तो
इस सुकूँ-ज़ार में कोई भी नहीं अपने सिवा
तुम जिन्हें रोग समझते थे वो सब लोग गए
अव्वलीं बर्फ़ के पड़ते ही मिरी का हर घर
बे-सदा छोड़ गए इस के मकीं
शोर का नाम नहीं
अब तो यूँ चुप न रहो
जी में आया था कि उस से कह दूँ
सब कहाँ तुम तो अभी तक हो यहाँ पर लेकिन
जाने क्या सोच के ख़ामोश रहा
नज़्म
पहली बर्फ़-बारी
ज़ुहूर नज़र