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पहला पत्थर | शाही शायरी
pahla patthar

नज़्म

पहला पत्थर

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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सबा हमारे रफ़ीक़ों से जा के ये कहना
ब-सद तशक्कुर-ओ-इख़्लास-ओ-हुस्न-ओ-ख़ुश-अदबी

कि जो सुलूक भी हम पर रवा हुआ उस में
न कोई रम्ज़ निहाँ है, न कोई बुलअजबी

हमारे वास्ते ये रात भी मुक़द्दर थी
कि हर्फ़ आए सितारों पे बे-चरागी का

लिबास-ए-चाक पे तोहमत क़बा-ए-ज़र्रीं की
दिल-ए-शिकस्ता पे इल्ज़ाम बद-दिमाग़ी का

सबा जो राह में दुश्मन मिलें तो फ़रमाना
कि ये तो कुछ न किया हो सके तो और करे

कि अपने दस्त-ए-लहू-रंग पर नज़र डाले
कि अपने दावा-ए-मासूमियत पे ग़ौर करे

हदीस है कि उसूलन गुनाहगार न हों
गुनाहगार पे पत्थर सँभालने वाले

और अपनी आँख के शहतीर पर नज़र रक्खें
हमारी आँख से काँटे निकालने वाले