शफ़क़ नज़्अ' में ले रही थी सँभाला
अँधेरे का ग़म खा रहा था उजाला
सितारों के रुख़ से नक़ाब उठ रही थी
फ़ज़ाओं से मौज-ए-शबाब उठ रही थी
मय-ए-ज़िंदगी जाम-ए-मय-नोश में थी
वो कैफ़-ए-मसर्रत, वो लम्हात-ए-रंगीं
वो अहसास-ए-मस्ती वो जज़्बात-ए-रंगीं
वो पुर-कैफ़ आलम वो दिलकश नज़ारे
वो जल्वों के बहते हुए ख़ुश्क धारे
वो नमकीन आग़ाज़-ए-शब अल्लाह अल्लाह
नुमाइश की वो ताब-ओ-तब अल्लाह अल्लाह
वो बाब-ए-मुज़म्मिल पे जश्न-ए-चराग़ाँ
फ़लक पर हों जैसे सितारे दरख़्शाँ
फ़ज़ाओं में गूँजे हुए वो तराने
वो जाँ-बख़्श नग़्मे वो पुर-लुत्फ़ गाने
वो हर सम्त हुस्न-ओ-लताफ़त की जानें
वो आरास्ता साफ़ सुथरी दुकानें
कहीं पर है नज़्ज़ारा कारीगरी का
कहीं गर्म होटल है पेशावरी का
ब-क़द्र-ए-सुकूँ वो दिलों का बहलना
अमीरों ग़रीबों का यकजा टहलना
नुमायाँ नुमायाँ वो यारान-ए-कॉलेज
वो इशरत-ब-दामाँ जवानान-ए-कॉलेज
कोई तेज़-दस्ती ओ चुस्ती पे नाज़ाँ
कोई सेह्हत ओ तंदुरुस्ती पे नाज़ाँ
कोई हुस्न की जल्वा-रेज़ी पे माइल
कोई शोख़ नज़रों की तेज़ी पे माइल
इधर चश्म-ए-हैराँ की नज़्ज़ारा-साज़ी
उधर हुस्न वालो की जल्वा-तराज़ी
ख़िरामाँ ख़िरामाँ वो हम-जोलियों में
निकलती हुई मुख़्तलिफ़ टोलियों में
नक़ाबों में वो बे-नक़ाबी का आलम
जो लाता है दिल पर ख़राबी का आलम
किसी का वो चेहरे से आँचल उठाना
किसी का किसी से निगाहें चुराना
कभी यक-ब-यक चलते चलते ठहरना
निगाहों से जल्वों की इस्लाह करना
कभी इक तवज्जोह दुकानों की जानिब
कभी इक नज़र नौजवानों की जानिब
तमाशा ग़रज़ कामयाब आ रहा था
नुमाइश पे गोया शबाब आ रहा था
इधर हम भी बज़्म-ए-तख़य्युल सजा कर
खड़े हो गए एक दुक्काँ पे आ कर
नज़र मिल गई दफ़अतन इक नज़र से
धड़कने लगा दिल मोहब्बत के डर से
इधर तो नज़र से जबीं-साइयाँ थीं
उधर से भी कुछ हिम्मत-अफ़्ज़ाइयाँ थीं
ख़लिश दिल की दोनों को तड़पा गई थी
मोहब्बत की मंज़िल क़रीब आ गई थी
ख़यालात में इस तरफ़ इक तलातुम
लबों पर उधर हल्का हल्का तबस्सुम
निगाहों से अहद-ए-वफ़ा हो रहा था
इशारों से मतलब अदा हो रहा था
इधर इश्क़ के बाम-ओ-दर सज रहे थे
घड़ी में जो देखा तो नौ बज रहे थे
यकायक जवाँ कुछ मिरे पास आए
जो थे आस्तीनों पे बिल्ले लगाए
कहा इतनी तकलीफ़ फ़रमाइएगा
नुमाइश से तशरीफ़ ले जाइएगा
ग़रज़ चल दिए घर को मजबूर हो कर
मोहब्बत के जल्वों से मामूर हो कर
हुइ जारी रही थी अजब हालत-ए-दिल
कोई छीन ले जैसे पढ़ते में नॉवेल
हम इस तरह बाब-ए-मुज़म्मिल से निकले
लहू जैसे टूटे हुए दिल से निकले
बहर-ए-हाल अब भी वही है नुमाइश
नवेद-ए-तरब दे रही है नुमाइश
वही जश्न है और वही ज़िंदगी है
मगर जैसे हर शय में कोई कमी है
अरे ओ निगाहों पे छा जाने वाली
मिरे दिल को रह रह के याद आने वाली
तिरी तरह जल्वा-नुमा है नुमाइश
तिरे हुस्न का आइना है नुमाइश
नुमाइश में तेरी लताफ़त है पिन्हाँ
नुमाइश में तेरी नज़ाकत है पिन्हाँ
निगाहों को नाहक़ तिरी जुस्तुजू है
यक़ीनन नुमाइश के पर्दे में तू है
नज़्म
नुमाइश-ए-अलीगढ़
शकील बदायुनी