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नीली क़िंदील | शाही शायरी
nili qindil

नज़्म

नीली क़िंदील

खालिद गनी

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हमारा रुज्हान यक़ीनन हरामी-पन तक जा चुका है
हमारे सरों पर ख़ौफ़ मुसल्लत हो रहा है

क्या हम जुनून की हद जागते हुए जज़्बात नहीं बक रहे
वाक़ई हमारी बेदारी

एक सोची-समझी साज़िश है
हम ने जुनून की हद तक इश्क़ किया

हम ने जुनून की हद तक मुबाशरत का लुत्फ़ लिया
अब हमें हमारा ही कल झिंझोड़ रहा है

उसे कैसे अलग करें
बे-फ़िक्र बे-ख़ौफ़ कुत्ते हड्डियों पर लड़ते हुए

अब हमारी तरफ़ लपक रहे हैं
उस के मुँह से गिरता हुआ सफ़ेद झाग

ज़मीन को तरी पहुँचा चुका
और इसी तर होती ज़मीन से एक नाज़ुक पौदा

ऊग कर
बहुत सारे पिघलते हुए सवालों

के जवाब
ना-क़ाबिल-ए-यक़ीन सच्चाई के दोश पर

पटरियों के हरे हरे पत्तों
की ख़ामोश छाँव में फिसलते जाएँगे