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नज़्र-ए-अलीगढ़ | शाही शायरी
nazr-e-aligaDh

नज़्म

नज़्र-ए-अलीगढ़

असरार-उल-हक़ मजाज़

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सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ

हर आन यहाँ सहबा-ए-कुहन इक साग़र-ए-नौ में ढलती है
कलियों से हुस्न टपकता है फूलों से जवानी उबलती है

जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शम्अ यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे गोशे से इक जू-ए-हयात उबलती है

इस्लाम के इस बुत-ख़ाने में असनाम भी हैं और आज़र भी
तहज़ीब के इस मय-ख़ाने में शमशीर भी है और साग़र भी

याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ इक नग़्मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है

हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ

ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का ये बज़्म-ए-वफ़ा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की

फ़ितरत ने सिखाई है हम को उफ़्ताद यहाँ पर्वाज़ यहाँ
गाए हैं वफ़ा के गीत यहाँ छेड़ा है जुनूँ का साज़ यहाँ

इस फ़र्श से हम ने उड़ उड़ कर अफ़्लाक के तारे तोड़े हैं
नाहीद से की है सरगोशी परवीन से रिश्ते जोड़े हैं

इस बज़्म में तेग़ें खींची हैं इस बज़्म में साग़र तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछाई है इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं

इस बज़्म में नेज़े फेंके हैं इस बज़्म में ख़ंजर चूमे हैं
इस बज़्म में गिर कर तड़पे हैं इस बज़्म में पी कर झूमे हैं

आ आ के हज़ारों बार यहाँ ख़ुद आग भी हम ने लगाई है
फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हमीं ने बुझाई है

याँ हम ने कमंदें डाली हैं याँ हम ने शब-ख़ूँ मारे हैं
याँ हम ने क़बाएँ नोची हैं याँ हम ने ताज उतारे हैं

हर आह है ख़ुद तासीर यहाँ हर ख़्वाब है ख़ुद ताबीर यहाँ
तदबीर के पा-ए-संगीं पर झुक जाती है तक़दीर यहाँ

ज़र्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ
ख़ुद आँख से हम ने देखी है बातिल की शिकस्त-ए-फ़ाश यहाँ

इस गुल-कदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले हैं फिर बर्क़ कड़कने वाली है

जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू-ए-रवाँ पर बरसेगा हर कोह-ए-गिराँ पर बरसेगा

हर सर्व-ओ-समन पर बरसेगा हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा ग़ैरों के चमन पर बरसेगा

हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा हर क़स्र-ए-तरब पर कड़केगा
ये अब्र हमेशा बरसा है ये अब्र हमेशा बरसेगा