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नज़्म | शाही शायरी
nazm

नज़्म

नज़्म

शबनम अशाई

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मैं बचपन में
दो क़लम एक साथ माँगती थी

मेरे दादा ख़ुश हो जाते
और मेरी माँ भी मुस्कुराती

पापा, नाना बनने से पहले
बच्चों के खेल में दिलचस्पी नहिं लेते

मैं दो दो हाथों से लकीरें खेंचती
एक दिन मेरे हाथों

औरत बन गई
जस के हाथ पैर ही नहिं

दिल और दिमाग़ भी दुख रहे थे
फिर इस की तहज़ीब करने में

मेरी छत्तीस रातें गुज़र गईं
सैंतीसवीं रात

पापा मेरे खेल में शरीक हुए
मुड़े-तुड़े काग़ज़ जैसे

उस औरत को
अपनी जेब में ठूँस लिया

मैं मलाल में
अपने दोनों क़लम तोड़ बैठी

अब औरत नहिं
फूल बनाऊँगी

काग़ज़ी फूल
जिन्हें न कहीं मिटी की ज़रूरत

न हवा रौशनी और पानी की मुहताजी हो
फिर जो जहाँ चाहे

उन्हें रख दे
या सजा दे