नई जगह थी दूर दूर तक आख़िर पर दीवारें शब की
कुछ यारों ने बरपा कर दी इक महफ़िल कुछ अपने ढब की
ऊँचे दर से दाख़िल हो कर साफ़ नशेब में बैठे जा कर
एक मक़ाम में हुए इकट्ठे रौनक़ और वीरानी आ कर
मरकज़-ए-दर से जश्न-बपा तक सैर थी शाम-ए-मेहर-ओ-वफ़ा की
ख़ुशी थी उस से मिलने जैसी बेचैनी थी अब्र-ओ-हवा की
सब रंगों के लोग जम्अ थे एक ही मंज़िल थी उन सब की
इक बस्ती आलाम से ख़ाली एक फ़ज़ा किसी ख़्वाब-ए-तरब की
जंगल की शादाबी जैसा पहना था कोई जल्वा उस ने
पैराहन इक नई वज़्अ का खुले समुंदर जैसा उस ने
कर रक्खा था चेहरा अपना दुख-मुख से बे-परवा उस ने
मेरी तरफ़ तकने से पहले चारों जानिब देखा उस ने
नज़्म
नई महफ़िल में पहली शनासाई
मुनीर नियाज़ी