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नारसी सस | शाही शायरी
narasi sas

नज़्म

नारसी सस

मुग़नी तबस्सुम

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तसव्वुर करो
दिन के ख़्वाबों के बर्बाद लम्हों का

जब सूली चढ़ी
उस का सर आसमाँ पर था

क़दमों में सारी ज़मीं
हाथ फैले हुए मुँह खुला

जीभ बाहर लटकती हुई
मुझे क्या ख़बर थी कि यूँ चाँद थक जाएगा

तसव्वुर करो
उस घड़ी

मैं जहाँ था वहाँ मेरा साया न था
मैं उसे ढूँढता

सात रंगों के दरिया की जानिब चला
मुझे क्या ख़बर थी कि पाताल में वो न था

हर तरफ़ नाग थे
इफ़रीत के हाथ में एक तलवार थी

फिर वो तलवार की धार थी
और मेरा गला

तसव्वुर करो
फिर वहाँ मेरा साया था और मैं न था