बरतरी अपनी क्या जताता है
ये कमाई तो तू भी खाता है
इतना कहना दलील है गोया
और तू भी असील है गोया
दो शरीफ़ों की सुन के ये तकरार
मैं खड़ा रह गया सर-ए-बाज़ार
और हैरत में ऐसा ग़र्क़ हुआ
कल-अदम एक एक फ़र्क़ हुआ
नाज़िश-ए-अस्ल-ओ-रंग के अफ़्सूँ
ग़ैरत-ए-नाम-ओ-नंग के अफ़्सूँ
मैं यहाँ भी सभी क़रीनों में
एक सी धड़कनें हैं सीनों में
कस्ब-ए-मजबूर पर भी ये एहसास
इज़्ज़त-ए-नफ़्स और वज़्अ का पास
ऐसा बातिल तिलिस्म-ए-रंग हुआ
मुंहदिम क़स्र-ए-नाम-ओ-नंग हुआ
इस तरह मिट गईं मिरी अक़दार
क़हक़हा बन गए दर-ओ-दीवार
ख़ानदानी शनाख़्तें मत पूछ
इज़्ज़तें और शराफ़तें मत पूछो
नज़्म
नाम-ओ-नंग
अब्दुल मजीद भट्टी