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ना-ख़लफ़ मिज़ाज की मुसद्दक़ा तस्लीमात | शाही शायरी
na-KHalaf mizaj ki musaddaqa taslimat

नज़्म

ना-ख़लफ़ मिज़ाज की मुसद्दक़ा तस्लीमात

सिदरा सहर इमरान

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मेरे बदन की चार दीवारी के लिए
खनकती हुई मिट्टी कम थी

इस लिए ख़ुदा ने आँखों में काँच भर दिया
और जहन्नम के लपकते हुए शोलों की जलन लहू में रख दी

मेरे हाथों में लक़-ओ-दक़ सहराओं की रेतीली वहशत
चबाए हुए अक्स की लकीरें बनाती रहती है

और ज़ेहन के रिसते हुए पतीले में
दिन भर बर्दाश्त का लावा खौलता है

लोग अपने अंदाज़ों की जूतियाँ
मेरे एहसास के दरवाज़े पे उतारते हैं

और कुफ़्र की मस्जिद में नंगे पाँव चले आते हैं
मैं अपनी ज़ात में इतनी मुतअ'स्सिब हूँ कि

लहजों को उन के मस्लक से पहचानती हूँ
और किसी बा-मुरव्वत ख़ानक़ाह में

मजबूरी का सज्दा नहीं करती
कोई ग़लीज़ मुस्कुराहट मेरी आँखों को छूना चाहे तो

मैं होंटों पे थूक देती हूँ
लेकिन सदक़ा-ए-जारीया का सुर्ख़ रुमाल उँगली पे नहीं बाँध सकती