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मुराजअत | शाही शायरी
murajaat

नज़्म

मुराजअत

मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी

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मैं अपने जिस्म के बाहर खड़ा हूँ
इन आँखों के दरीचे से तो अब

बसें सड़कें मिलों की चिमनियां
म्यूंसिपल्टी का वो नल कोढ़ी भिकारी

धनी-मल का बहुत ऊँचा मकाँ
कुछ भी नज़र आता नहीं

अब इन आँखों में मेरी
हज़ारों इंजनों का शोर है

काला धुआँ है
मगर दिल को लुभाता है अभी तक

नील-गूँ दूरी का मंज़र
चाँद तारे आसमाँ

देखने की ख़्वाहिशें
जागती हैं

मशीनी हाथ मुझ को ढूँडते हैं
मैं अपने जिस्म के बाहर खड़ा हूँ