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मुकालिमा नज़्र-ए-अस्मत | शाही शायरी
mukalima nazr-e-asmat

नज़्म

मुकालिमा नज़्र-ए-अस्मत

ख़ालिद मोईन

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तुम ऐसी सुब्हों तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो

कि जब हवाएँ सुपुर्दगी से निहाल हो कर
तुम्हारे पहलू में डोलती हों

तुम्हारे आँचल से खेलती हों
तुम ऐसी सुब्हों तुम ऐसी शामों में

अपने घर से कभी न निकलो
कि हवाएँ उदास लहजे में तुम से पूछें

तुम्हारे आँखों को क्या हुआ है
तुम्हारे चेहरे पे क्या लिखा है

तुम्हारे उठते हुए क़दम पर
ये लड़खड़ाहट सी किस लिए है

तुम ऐसी सुब्हों तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो

कि जब हवाएँ
बदलते मौसम की साज़िशें में शरीक हो कर

तुम्हारे जी में ग़लत-बयानी का ज़हर घोलें
सुनो ऐ प्यारी-सी साँवली-सी सजीली लड़की

यही हवाएँ तो आते-जाते
मुसाफ़िरान-ए-रह-ए-वफ़ा पर

ग़ुबार-ए-तोहमत उछालती है
मोहब्बतों पर यक़ीं न हो तो

दिलों में पैहम
हज़ार वहमों को डालती है

तुम ऐसी सुब्हों तुम ऐसी शामों में
अपने घर से कभी न निकलो कभी न निकलो कभी न निकलो