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मुझे रोने दो | शाही शायरी
mujhe rone do

नज़्म

मुझे रोने दो

मुनीबुर्रहमान

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मुझे रोने दो रोने दो
उसी पीपल के साए में

जहाँ इक दर्द की तासीर का मारा
बताता था कि राज़-ए-दर्द-ओ-ग़म क्या है

मुदावा-ए-अलम क्या है
मुझे रोने दो रोने दो

जहाँ मुरली की धुन सुन कर
वो राधाएँ

कड़े जाड़े के मौसम में
किसी की गर्मी-ए-आग़ोश से उठ कर

मोहब्बत की दमकती चाँदनी में जा निकलती थीं
मुझे रोने दो रोने दो

कि मैं इक अजनबी बन कर
तुम्हारे दर पे आया हूँ, मिरा कश्कोल ख़ाली है

तुम्हारे पास जो धन था
मिरा दिल आज फिर उस का सवाली है

मगर तुम दान क्या दोगे
कि तुम तो ख़ुद भिकारी हो

मुझे रोने दो रोने दो