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मुजस्समा | शाही शायरी
mujassama

नज़्म

मुजस्समा

अहमद फ़राज़

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ऐ सियह-फ़ाम हसीना तिरा उर्यां पैकर
कितनी पथराई हुई आँखों में ग़ल्तीदा है

जाने किस दौर-ए-अलम-नाक से ले कर अब तक
तू कड़े वक़्त के ज़िंदानों में ख़्वाबीदा है

तेरे सब रंग हयूले के ये बे-जान नुक़ूश
जैसे मरबूत ख़यालात के ताने-बाने

ये तिरी साँवली रंगत ये परेशान ख़ुतूत
बारहा जैसे मिटाया हो इन्हें दुनिया ने

रेशा-ए-संग से खींची हुई ज़ुल्फ़ें जैसे
रास्ते सीना-ए-कोहसार पे बल खाते हैं

अब्रूओं की झुकी मेहराबों में जामिद पलकें
जिस तरह तीर कमानों में उलझ जाते हैं

मुंजमिद होंटों पे सन्नाटों का संगीन तिलिस्म
जैसे नायाब ख़ज़ानों पे कड़े पहरे हों

तुंद जज़्बात से भरपूर बरहना सीना
जैसे सुस्ताने को तूफ़ान ज़रा ठहरे हों

जैसे यूनान के मग़रूर ख़ुदावंदों ने
रेगज़ारान-ए-हबश की किसी शहज़ादी को

तिश्ना रूहों के हवसनाक तअ'य्युश के लिए
हजला-ए-संग में पाबंद बना रक्खा हो