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मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को | शाही शायरी
meri jaan ab bhi apna husn wapas pher de mujhko

नज़्म

मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को
अभी तक दिल में तेरे इश्क़ की क़िंदील रौशन है

तिरे जल्वों से बज़्म-ए-ज़िंदगी जन्नत-ब-दामन है
मिरी रूह अब भी तन्हाई में तुझ को याद करती है

हर इक तार-ए-नफ़स में आरज़ू बेदार है अब भी
हर इक बे-रंग साअत मुंतज़िर है तेरी आमद की

निगाहें बिछ रही हैं रास्ता ज़र-कार है अब भी
मगर जान-ए-हज़ीं सदमे सहेगी आख़िरश कब तक

तिरी बे-मेहरियों पर जान देगी आख़िरश कब तक
तिरी आवाज़ में सोई हुई शीरीनियाँ आख़िर

मिरे दिल की फ़सुर्दा ख़ल्वतों में जा न पाएँगी
ये अश्कों की फ़रावानी से धुँदलाई हुई आँखें

तिरी रानाइयों की तमकनत को भूल जाएँगी
पुकारेंगे तुझे तो लब कोई लज़्ज़त न पाएँगे

गुलू में तेरी उल्फ़त के तराने सूख जाएँगे
मबादा याद-हा-ए-अहद-ए-माज़ी महव हो जाएँ

ये पारीना फ़साने मौज-हा-ए-ग़म में खो जाएँ
मिरे दिल की तहों से तेरी सूरत धुल के बह जाए

हरीम-ए-इश्क़ की शम-ए-दरख़्शाँ बुझ के रह जाए
मबादा अजनबी दुनिया की ज़ुल्मत घेर ले तुझ को

मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को