''मीरा-जी को मानने वाले कम हैं लेकिन हम भी हैं
'फ़ैज़' की बात बड़ी है फिर भी अब वैसा कौन आएगा''
तज़ईन-ए-सुख़न की फ़िक्र न कर बे-साख़्ता चल
उठ आँखें मल
वो कामिल दीवान आ ही गया
दुनिया भर को दहला ही गया
हाँ मान लिया पर बहर का क्या बदले बदली हर बहर बदलने वाली है
जिस रौ में समुंदर लाख भरे वो रौ फिर चलने वाली है
जब हम ने पढ़ा कब चव्वन में कई नए तो उन को पहचाने
कुछ सिक्का-बंद तरक़्क़ी-पसंद इस जुरअत पर भी बुरा माने
और हम से हो गए बेगाने
यूँ भी कोई हम को क्या जाने
और जब ये छपा अठ्ठावन में तो 'फ़ैज़' बहुत ही आगे थे
जेलें अफ़्साने मजमूए
कुछ ऐसा रोब हुआ क़ाएम सब उन के जिलौ में भागे थे
हम जैसे भी उन के मल्बूसात में कच्चे-पक्के धागे थे
फिर वक़्त का पलड़ा सिर्फ़ सियासत और तश्हीर में झूल गया
दो चार पुराने जमे रहे पर 'मीरा-जी' को एक ज़माना भूल गया
कम अहल-ए-सुख़न कम अहल-ए-नज़र को याद रहा
कोई 'मीरा-जी' भी शायर था
वो पाकिस्तान नहीं आए
कैसे आते
कोई इश्क़ के ज़ोर पे बुलवाता तो आ जाते
बम्बई में नंगे भूके और बीमार रहे
वाँ अख़्तर-उल-ईमान ही उन के दोस्त मुरब्बी ख़ादिम बिस्तर-ए-मर्ग और क़ब्र तलक ग़म-ख़्वार रहे
याँ उन के साहिब-ए-क़ुव्वत चाहने वाले भी दो वक़्त की रोटियाँ देने को बुलवा न सके
ये अपने अपने ज़मीर पे है क्या कहवाए और अब भी क्या कहवा न सके
आसान-तरीन बयाँ ये होगा बुलवाया पर आ न सके
और अब उन का दीवान छपा
दोबारा वही दरबार सजा
क्या गहरा चौड़ा दरिया है
किन किन सम्तों में बहता है
जग भर से ख़ज़ाने लेता है
जग भर को को ख़ज़ाने देता है
क्या इस में सफ़ीने बहने लगे
सब उन को क़सीदे कहने लगे
अब 'फ़ैज़' भी हैं और 'राशिद' भी
वो बहुत बड़े पर 'मीरा-जी'
हाँ 'मीरा-जी' वो चमकते हैं
क्या क्या हीरे क्या क्या मोती किस शान के साथ दमकते हैं
ऐ यार-ए-ग़याब 'मजीद-अमजद'
ख़ामोश शिकार-ए-रश्क-ओ-हसद
बे-तश्हीरी के सैद-ए-ज़बूँ
कब झंग में आ कर तुझ से कहूँ
ले वो सच वापस आया है
जो जिस का हक़ हो एक न एक दिन उस ने पूरा पाया है
नज़्म
मीरा-जी साहिब
जमीलुद्दीन आली