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मज़दूर औरतें | शाही शायरी
mazdur aurten

नज़्म

मज़दूर औरतें

जाँ निसार अख़्तर

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गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चेहरों पे ख़ाक धूल के पोंछे हुए निशाँ

तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मैले फटे लिबास हैं महरूम-ए-शास्त-ओ-शू

तू और इत्र ओ अम्बर ओ मुश्क ओ अबीर ओ ऊद
मज़दूर के भी ख़ून की आती है इस में बू

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तन ढाँकने को ठीक से कपड़ा नहीं है पास

तू और हरीर ओ अतलस ओ कम-ख़्वाब ओ परनियाँ
चुभता नहीं बदन पे तिरे रेशमी लिबास

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चाँदी का कोई गंझ न सोने का कोई तार

तू और हैकल-ए-ज़र ओ आवेज़ा-ए-गुहर
सीने पे कोई दम भी धड़कता है तेरा हार

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
सदियों से हर निगाह है फ़ाक़ों की रहगुज़र

तू और ज़ियाफ़तों में ब-सद-नाज़ जल्वा-गर
किस के लहू से गर्म है ये मेज़ की बहार

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तारीक मक़बरों से मकाँ इन के कम नहीं

तू और ज़ेब-ओ-ज़ीनत-ए-अलवान-ए-ज़र-निगार
क्या तेरे क़स्र-ए-नाज़ की हिलती नहीं ज़मीं

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मेहनत ही उन का साज़ है मेहनत ही उन का राग

तू और शुग़्ल-ए-रामिश-ओ-रक़्स-ओ-रबाब-ओ-रंग
क्या तेरे साज़ में भी दहकती है कोई आग

गुलनार देखती हैं ये मज़दूर औरतें
मेहनत पे अपने पेट से मजबूर औरतें