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मौत मुझ पर बर-हक़ नहीं | शाही शायरी
maut mujh par bar-haq nahin

नज़्म

मौत मुझ पर बर-हक़ नहीं

जावेद शाहीन

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मैं मरने के लिए पैदा नहीं हुआ
मुझ पर किसी क़िस्म का हमला

उस मुआहिदे की ख़िलाफ़-वरज़ी होगी
जिस पर एक ग़ैबी हाथ और मैं ने

दस्तख़त किए थे
और जिस की रू से

मौत मुझ पर बर-हक़ नहीं ठहरी थी
ज़िंदा रहना अब मेरा दर्द-ए-सर नहीं

मैं ये फ़रीज़ा
तारीख़ को सौंप चुका हूँ

तारीख़ जो मेरी रगों में
ज़हर की सूरत दाख़िल हुई

और अब अमृत बन कर
मेरे मसामों से

क़तरा क़तरा टपक रही है
मौत से मेरी कोई शनासाई नहीं

मैं उस से दरख़्वास्त करूँगा
वो मेरे ख़िलाफ़

किसी साज़िश में शरीक न हो
कि मेरे पास

मुआहिदे की जो नक़्ल महफ़ूज़ है
उस पर उस के दस्तख़त

बतौर-ए-गवाह मौजूद हैं