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मन तू शुदम तू मन शुदी | शाही शायरी
man tu shudam tu man shudi

नज़्म

मन तू शुदम तू मन शुदी

खुर्शीद अकबर

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मैं अगर ख़ाक
तो है आब मिरी

तू है ताबीर
मैं हूँ ख़्वाब तिरा

तू अगर आग
मैं हवा का शोर

तू ज़मीं मेरी
मैं तिरा आकाश

मैं तिरा जिस्म
तू है रूह मिरी

इश्क़ मेरा है रेग-ज़ारों सा
हुस्न तेरा है आबशारों सा

तो हिमाला की पुर-फ़ज़ा वादी
मैं समुंदर की तरह आज़ादी

और किस किस तरह से क्या बोलूँ
ऐन फ़ितरत के राज़ क्या खोलूँ

ये मन ओ तू का फ़र्क़ ही शायद
हम से लेता है इम्तिहाँ जानाँ

आख़िरी ये फ़सील गिर जाए
फिर तो है वस्ल-ए-जावेदाँ जानाँ

इक फ़ना अपनी इब्तिदा जानाँ
इक फ़ना अपनी इंतिहा जानाँ