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मकड़ी | शाही शायरी
makDi

नज़्म

मकड़ी

इब्न-ए-मुफ़्ती

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अगर मकड़ी दिखाई दे
तो डरती है मिरी बेटी

बड़ा ही ख़ौफ़ खाती है
तक़ाज़ा मुझ से करती है

कि उस को मार डालूँ में
मगर कुछ सोच कर यारो

उठा लेता हूँ मैं उस को
और बाहर छोड़ आता हूँ

यही मकड़ी थी कि जिस ने
वो ग़ार-ए-सौर में जाला

था कुछ ऐसे बना डाला
कि दुश्मन भी पहुँच कर वाँ

नहीं उन तक पहुँच पाए
बड़ा एहसाँ है मकड़ी का

मुसलमानान-ए-आलम पर
यही कुछ सोच कर यारो

उठा लेता हूँ मैं उस को
और बाहर छोड़ आता हूँ