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मैं जिंसी खेल को सिर्फ़ इक तन-आसानी समझता हूँ | शाही शायरी
main jinsi khel ko sirf ek tan-asani samajhta hun

नज़्म

मैं जिंसी खेल को सिर्फ़ इक तन-आसानी समझता हूँ

मीराजी

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मैं जिंसी खेल को सिर्फ़ इक तन-आसानी समझता हूँ
ज़रिया और है माबूद से मिलने का दुनिया में

तख़य्युल का बड़ा सागर तसव्वुर के हसीं झोंके
लिए आते हैं बारिश में तमन्नाएँ इबादत की

मगर पूरी नहीं होती तमन्ना दिल की चाहत की
किसी औरत का पैराहन किसी ख़ल्वत की ख़ुशबुएँ

किसी इक लफ़्ज़-ए-बे-मअ'नी की मीठी मीठी सरगोशी
यही चीज़ें मिरे ग़मगीं ख़यालों पर हमेशा छाई रहती हैं

इबादत का तरीक़ा हरकतें हैं तिश्ना ओ मुबहम
कभी रूह-ए-सनम बेदार ख़्वाब-ए-मर्ग-ए-मुहमल से नहीं

किसी इंदर-सभा की लाख परियाँ आ के बहलाएँ
लुभाते नाच नाचें और रसीले राग भी गाएँ

मगर ये मुर्दा-दिल आदी है बस ग़मगीं ख़यालों का
घटा आती नहीं ख़ुशियों की बारिश ला नहीं सकती

मिरी रूह-ए-हज़ीं महकूम है अपने तअस्सुर की
ज़रिया और है माबूद से मिलने का दुनिया में

मैं जिंसी खेल को क्यूँ इक तन-आसानी समझता हूँ
कभी इंसाँ की उम्र-ए-मुख़्तसर पर ग़ौर करता हूँ

कभी फ़ानी तमन्नाओं की झीलों में यूँही खोया सा फिरता हूँ