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मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू | शाही शायरी
mai-shikasta-dili ai harif-e-zauq-e-numu

नज़्म

मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू

असलम अंसारी

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मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
किसी गुज़िश्ता सदी के उताक़-ए-वीराँ से

न डाल और मिरे दिल पे साया-ए-गेसू
वो अंकबूत जो तार-ए-नफ़स में जीते हैं

न जाने कैसे दर आए हैं तेरी महफ़िल में
कि ख़ून ये भी तिरे रत-जगों का पीते हैं

मैं जानता हूँ किसे मिल सकी किसे न मिली
वो गुल-सराए बहिश्त-ए-आफ़रीं मगर फिर भी

मुझे नहुफ़्ता न रख ऐ मय-ए-शिकस्ता-दिली
मिरे ज़ुहूर में कुछ मुम्किनात मेरे हैं

मैं देख पाँव अगर तुझ से इस उफ़ुक़ से परे
तो फिर ये सारे दरख़्शाँ जिहात मेरे हैं