मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
किसी गुज़िश्ता सदी के उताक़-ए-वीराँ से
न डाल और मिरे दिल पे साया-ए-गेसू
वो अंकबूत जो तार-ए-नफ़स में जीते हैं
न जाने कैसे दर आए हैं तेरी महफ़िल में
कि ख़ून ये भी तिरे रत-जगों का पीते हैं
मैं जानता हूँ किसे मिल सकी किसे न मिली
वो गुल-सराए बहिश्त-ए-आफ़रीं मगर फिर भी
मुझे नहुफ़्ता न रख ऐ मय-ए-शिकस्ता-दिली
मिरे ज़ुहूर में कुछ मुम्किनात मेरे हैं
मैं देख पाँव अगर तुझ से इस उफ़ुक़ से परे
तो फिर ये सारे दरख़्शाँ जिहात मेरे हैं
नज़्म
मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
असलम अंसारी