न जाने क्यूँ
मुझे अक्सर गुमान होता है
मह-ए-तमाम फ़क़त देखता नहीं है हमें
वो जब्र-ओ-क़ैद-ए-मुसलसल पे इक मशक़्क़त की
हज़ारों साल से इस बे-कराँ मसाफ़त की
बिसात-ए-वक़्त की
इक दास्ताँ सुनाता है
समझ सकें तो
बहुत कुछ हमें बताता है
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नज़्म
माह-ए-तमाम
नईम जर्रार अहमद