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लेकिन | शाही शायरी
lekin

नज़्म

लेकिन

आदिल मंसूरी

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काली ऐनक लगाए घूमते रहना सूरज में सड़कों पर होटलों में
थिएटरों में मस्जिदों में दुकानों में रेलवे प्लेटफार्म पर

भटियार गलियों में शामिल होना बुझे बुझे चेहरों वाली भीड़ में ताकते रहना
सफ़ेद दीवारों को अकेले लायानी है सब कुछ और जो दिखाई देता है

वो नहीं है फिर भी दिखाई देता है कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता पाँव हैं जुराबें
न होने से लाईफ़ और टाइम न पढ़ने से यही क्या कम है कि सुब्ह से

शाम तक जम्अ' करते हैं लफ़्ज़ों को रेडियो सुनते हैं और देखते हैं मिरे
हुए कबूतर की आँख स्कूल से लौटते हुए बच्चे शराब की झील में तैरते

शिकारे पचास से कम शे'र की ग़ज़ल नहीं लिखते फ़िराक़ आज भी क़बाइली
कमर से बाँधे फिरते हैं चालें गज़ की शलवार क्या होता है नाम से

या शे'र कहने से या दिन-भर ऊँघते रहने से या किताबें सूँघने से
ताश खेलने का मज़ा ही और है अहमदाबाद हो या लाहौर हर जगह होता है

सूरज घर बैठे गंगा है भाई कांग्रेस में फूट पड़े या सात
हज़ार इंसान मार दिए जाएँ भूके उठते हैं हर सुब्ह बिस्तर से किसी ने

देखे हैं बैकेट और पिकासो कब्बडी के मैदान में या गिन्सबर्ग को
इस्त्री करते हुए निक्सन से ले कर मुरार-जी तक कोई भी रोक न सका

छींक और खाँसी अब आँखें खोल दीजिए हज़रत देखिए पूरा
अमरीका छींक रहा है खाँस रहा है इधर देखिए ये हिन्दोस्तान

भी छींक रहा है खाँस रहा है खाँस रहा है छींक रहा है
कहाँ से शुरूअ' हुई है तारीख़ और कहाँ जा कर रुकना है लोगों को

उदास रहती हैं हामिला औरतें बस और सिनेमा की क़तार में घेर रक्खी है
ज़मीन भिकारियों ने और मंगाओ चरस और गाँजा फिर भी अलग करना मुश्किल

है पुरानी को नई-दिल्ली से लाशों को देख कर महफ़ूज़ नहीं होते तुम कैसे
आदमी हो कहाँ गईं वो तवाइफ़ें कहाँ गए वो क़व्वाल मा'नी तो हर लफ़्ज़

में मौजूद है लेकिन