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लहू का ज़ाइक़ा | शाही शायरी
lahu ka zaiqa

नज़्म

लहू का ज़ाइक़ा

खालिद गनी

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सब झूट बोलते हैं
मैं जब माँ के पेट में था तब भी झूट नहीं बोलता था

मैं ने माँ के पेट में
ताज़ा ताज़ा गर्म सुर्ख़ ख़ून पिया था

पैदाइश के बाद सफ़ेद गाढ़ा ठंडा ख़ून मुझे मिला
जब से मैं मुसलसल ख़ून पी रहा हूँ

मैं ने बचपन से लड़कपन तक
लड़कपन से जवानी तक

बार-हा इस ख़ून का ज़ाइक़ा चखा है
मैं इस के बग़ैर ज़िंदा नहीं रह सकता

इस के मरने से
मेरा तमाम जिस्म आश्ना है

अक्सर जब मेरे जिस्म पर कोई ज़ख़्म लगता है तो
बे-साख़्ता ज़बान इस तरफ़ लपकती है

और मुझे
वही ज़ाइक़ा याद आने लगता है

जो मैं ने पहली बार
माँ के पेट में चखा था