में वो कश्ती हूँ कभी जिस को किनारा न मिला
ले लिया अपनी जवानी का सहारा मैं ने
जब मुझे क़ौम के हाथों का सहारा न मिला
हो के मजबूर जहन्नम को बसाया मैं ने
जब मुझे मंदिर-ओ-मस्जिद में ठिकाना न मिला
कल हिक़ारत से जो कहते थे भिकारन मुझ को
आज कहते हैं कि गुलशन में नया फूल खिला
कोई समझा न मेरी रूह को ख़ामोश पुकार
सब समझते रहे चलता हो सिक्का मुझ को
चंद लम्हे तो गुज़र जाएँगे अच्छे-ख़ासे
जिस ने देखा उसी अंदाज़ से देखा मुझ को
खेलती है मिरी रग रग से ये पापी दुनिया
दे के काग़ज़ के खिलौने मुझे बहलाती है
मेरी मजरूह जवानी की शिकस्ता कश्ती
कितने बिफरे हुए तूफ़ानों से टकराती है
मेरी आग़ोश को फ़िरदौस समझने वालो
तुम को मा'लूम है किस तरह से मैं जितनी हूँ
चंद चाँदी के खनकते हुए सकूँ के तले
रात फिर अपनी जवानी का लहू पीती हूँ
गंदी नाली में उसे फेंक दिया जाएगा
वो कली जो अभी मा'सूम है बे-परवा है
मेरी बच्ची मेरी बच्ची भी तवाइफ़ होगी
साँप की तरह ये एहसास मुझे दस्ता है
कल किसी क़ौम के ख़ादिम ने सहारा न दिया
आज किस मुँह से ये कहते हो कि बद-कार हूँ मैं
मैं तुम्हारे ही तो किरदार का आईना हूँ
कौन कहता है कि पापी हूँ गुनाहगार हूँ मैं
नज़्म
कोई रहबर कोई साथी कोई अपना न मिला
वाक़िफ़ राय बरेलवी