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खंडर | शाही शायरी
khanDar

नज़्म

खंडर

कफ़ील आज़र अमरोहवी

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कैसी ख़ामोशी है वीरानी है सन्नाटा है
कोई आहट है न आवाज़ न कोई धड़कन

दिल है या क़ब्र सुलगती हुई तन्हाई की
ज़ेहन है या किसी बेवा का अकेला आँगन

उड़ गया रंग हर इक सोच के आईने का
शब के बे-नूर दुपट्टे से सितारे टूटे

जम गई गर्द ख़यालों की हसीं राहों पर
मुद्दतें हो गईं उम्मीद का दामन छूटे

यक-ब-यक दूर बहुत दूर बहुत दूर कहीं
तेरी पाज़ेब छनकने की सदा आने लगी

शौक़ ने पाँव बढ़ाए उसी आवाज़ की सम्त
तुझ से मिलने की लगन और भी तड़पाने लगी

ये खंडर आज जहाँ रात की तारीकी में
तू ने भूले हुए अफ़्साने को दोहराया है

इसी उजड़े हुए वीरान खंडर में कि जहाँ
कितने दिन ब'अद तिरा साया नज़र आया है

इसी उजड़े हुए वीरान खंडर में हम ने
उम्र भर साथ निभाने की क़सम खाई थी

इसी उजड़े हुए वीरान खंडर में तेरे
थरथराते हुए होंटों पे दुआ आई थी

रस्म कोई हो मगर हम को जुदा कर न सके
ये रिवायात न पहनाएँ कभी ज़ंजीरें

हम कि इस राज़ से इस बात से ना-वाक़िफ़ थे
कि दुआओं से बदलती ही नहीं तक़दीरें

लेकिन अब रस्म कोई कुछ न कहेगी मुझ से
अब रिवायात को मजबूर किया है मैं ने

अब न रोकेगा मिरी राह ज़माना बढ़ कर
जो भी अंजाम हो ये सोच लिया है मैं ने

मैं मुक़द्दर से गले मिल के नहीं रो सकता
तुझ को पाना मिरा मक़्सद है तुझे पाऊँगा

आज ठुकरा के हर इक मस्लहत-अंदेशी को
तेरे साए के तआक़ुब में चला जाऊँगा