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ख़ाके | शाही शायरी
KHake

नज़्म

ख़ाके

वहीद अहमद

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(सच्चे लोगों के नाम)
अजीब माँ हो

तुम अपने बच्चों को मारती हो
तो इस ख़ता पर

कि वो हुकूमत की वहशतों के ख़िलाफ़ निकले
जुलूस के साथ जा रहे थे

तुम अब परेशान हो रही हो
मैं आने वाली घड़ी के बारे में सोचता हूँ

जब एक मौसम कई कई साल तक रहेगा
तुम अपने हाथों से मिरे शाने हिला हिला कर कहोगी

बाहर निकल के उन काफ़िरों को रोको
जो अपने जिस्मों में अंधा हीजान भर के

सड़कों पे चीख़ते हैं
रब्ब-ए-मौसम

जुलाई सर पे है और कोहरा
हमारे जिस्मों में

और फ़सलों के रोंगटों में उतर रहा है
हमें जुलाई में जनवरी की फ़ज़ाएँ मंज़ूर किस तरह हों

हमारे ज़ेहनों में
रुत की तब्दीलियों के ख़ाके बने हुए हैं

अब तुम परेशान हो रही हो
मैं गुज़रे वक़्तों की आहटें सुन रहा हूँ

जब मैं ने ये कहा था
कि बच्चे तुम पे गए तो आराम से रहेंगे

मगर जो वरसे में मेरी सोचें मिलें
तो वादा करो ये शिकवा नहीं करोगी

कि मेरे बच्चे
जिन्हें कई माह मैं ने अपना लहू दिया था

वो उस लहू को
उजाड़ सड़कों के मुँह पे मलने पे तुल गए हैं