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कहीं कुछ नहीं होता | शाही शायरी
kahin kuchh nahin hota

नज़्म

कहीं कुछ नहीं होता

शाहिद माहुली

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कहीं कुछ नहीं होता
न आसमान टूटता है

न ज़मीं बिखरती है
हर चीज़ अपनी अपनी जगह ठहर गई है

माह ओ साल
शब ओ रोज़

बर्फ़ की तरह जम गए हैं
अब कहीं अजनबी क़दमों की चाप से

कोई दरवाज़ा नहीं खुलता
न कहीं किसी जादुई चराग़ से

कोई परियों का महल तामीर होता है
न कहीं बारिश होती है

न शहर जलता है
कहीं कुछ नहीं होता

अब हमेशा एक ही मौसम रहता है
न नए फूल खिलते हैं

न कहीं पतझड़ होता है
खेतों और खलियानों से

सजे हुए बाज़ारों तक
नए मौसम के इंतिज़ार में

लोग चुप-चाप खड़े हैं
न कहीं कोई कुँवारी हँसती है

न कहीं कोई बच्चा रोता है
कहीं कुछ नहीं होता

रास्तों पर और उफ़ुक़ बिखर गए हैं
और किताबों पे धूल

दिमाग़ों में जाले हैं
और दिलों में ख़ौफ़

गलियों में धुआँ है
और घरों में भूक

अब न कोई जंगल जंगल भटकता है
न कोई पत्थर काट काट कर नहरें निकालता है

कहीं कुछ नहीं होता