कुछ न कहना भी बहुत कहना है
लफ़्ज़ सीने में ही रुक जाएँ तो फिर बात कहाँ होती है
लेकिन अल्फ़ाज़ के अतराफ़ जो वो
एक चश्म-ए-निगराँ होती है
उसी चश्म-ए-निगराँ के सदक़े
आँख अगर ख़ुश्क नज़र आए बहुत रोती है
ज़िंदगी ख़्वाब है तस्वीर तिरी सूती है
ख़्वाब था या आलम-ए-बेदारी था
तेरी तस्वीर थी या तू, तुझे कब देखा था
अब तो कुछ याद नहीं आता है सदियाँ गुज़रीं
हाँ मगर ये कि तेरा नाम लिए
ख़ुश्क आँखों के किनारे कई नदियाँ गुज़रीं
नज़्म
कही अन-कही
मुसहफ़ इक़बाल तौसिफ़ी